विद्यापति गीत


विद्यापति गीत                                                                           

 १. 
  जय -जय  भैरवी असुर भयाओनि, पशुपति भामिनी माया !
     सहज सुमति वरदिअ हे गोसाउनि, अनुगति -गति तुअ पाया !!

     वासर  रैन  शवासन   शोभित ,  चरण  चन्द -  मणि -  चूड़ा  !
     कतेओक दैत  माएरि  मुह में लेलि , कतहु उगलि केलि  कूड़ा !!

   सामर    बदन   नयन   अनुरंजित ,जलद  जोग फूल  कोका !
    कट - कट  विकट ओठ - पुट पाररि , लिदुर  फेन उठ फोका  !!

   घन- घन घनय  घुंघरू कत बजाय, हन - हन कर तुए काता !
   विद्यापति  कवि  तुए  पद सेवक , पुत्र   बिसरू  जनु  माता  !!
                                                                     

     २ .
कुंज भवन सँ निकसलि रे  रोकल गिरिधारी  !
एकहि नगर बासु माधव हे  जनि करू बटमारी !!

छोड़ू कन्हैया मोरा आँचर रे  फाटत नव सारी !
अपजस होत जगत भरी हे  जनि करिअ उघारी !!

संगक सखी अगुआएल रे  हम एकसरि नारी !
दामिनी आय तुलायल रे  एक रति अन्हारी !

भनहि विद्यापति गाओल रे  सुनु गुनमति नारी !
हरिक संग कछु डर नहीं रे  तोहें परम गमारी !!


३ .
चानन भेल विषम सर रे , भूषण भेल भारी।
सपनहु हरि नहि आयल रे , गोकुल गिरधारी।।

एकसरि ठाढ़ि कदम तर रे , पथ हेरथि मुरारी।
हरि बिनु देह दग्ध भेल रे , झामर भेल सारी।।

जाह - जाह तोहें उधब हे , तोहें मधुपुर जाहे।
चन्द्र बदन नहि जिउति रे , बध लागत काहे।।

कवि विद्यापति गाओल रे , सुनु गुनमति नारी।
आजु आओत हरि गोकुल रे , पथ चालु झटकारी।।


४ .
बड़  सुखसार पाओल तुअ तीरे।
छोड़इत निकट नयन बह नीरे।।

कल जोडि बिनमओं  विमल तरंगे।
पुनि दरसन होअय पुनिमति गंगे।।

एक अपराध छेमब मोर जानी।
परसल माए पाए तुए पानी।।

की करब जप-तप जोग धेआने।
जनम सफल भेल एकहि सनाने।।

भनहि विद्यापति समदाओ तोहि।
अंत काल जनु बिसरब मोहि।।


५ .
आसक लता लगाओल सजनी गे , नयनक नीर पटाय।
से फल आब परिनत भेल सजनी गे , आँचर तर ने समाय।।

कांच सांच कछु देखि गेल सजनी , तसु मन भेल कहु भान।
दिन-दिन फल परिनत भेल सजनी , अहनख कर ने गेआन।।

सबहक पहु परदेस बासु सजनी , आयल सुमिरि सिनेह।
हमर एहेन पति निरदय सजनी , नहि मन बाढ़य नेह।।

भनहि विद्यापति गाओल सजनी , उचित आओत गुन साइ।
उठि बाधव करू मन भरि सजनी , आब आओत घर नाइ।।



६.
ससन - परस   खसु अम्बर रे   देखल धनि देह। 
नव जलधर तर चमकय जनि विजुरि रेह।।

आजु देखलि धनि जाइत रे मोहि उपजल रँग। 
कनकलता  संचर रे  मोहि निर अवलम्ब।।

ता पुनि अपरुब देखल रे कुच - जुग अरविन्द। 
विकसित नहि किछु कारन रे सोझा मुख  चंद।।

विद्द्यापति कवि गाओल रे रस बुझू रसमन्त। 
देवसिंह नृप नागर रे हासिनी देइ कंत।।


क्रमशः ........................ 






























3 comments:

  1. jai chitragupt maharaj....
    Vidyapatik Bhagwati par e prasidh geet d kay badd nik kaj keo....vidyapatik aar geet sabhak intzar k rahal chhi.

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  2. Vidyapati ke geet badd nik lagal...Thanks.

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